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मेरा पता

आज, मैं खुद में ही,  खुद का पता ढूंढती हूँ

जैसे कि, वो मुझमें  ही कहीं, खो गया हो,

शायद बरसों पुरानी, किसी किताब में,

बागीचे में, मुरझाए हुए, गुलाब में,

दीवार में  छिपी, सिसकती हुई दरार में,

मेरे अपमान और उनके अभिमान में


कहीं तो, चस्पा हुआ देखा है, मैंने उसे,

शायद गालों पर छपे, हाथ के निशानों में,

दिन के अंधेरे और रात के उजालों में।

उनकी चीखों और चिल्लाहटों में,

उनके अंदर के बुज़दिल किनारों में


अभी भी याद है मुझे,  

वह यही  कहीं, खन्न  से गिरा था,

शायद पलंग की पाटी पर,

दीवार की लाल ईंट पर,

फटाक से,बंद होते हुए दरवाजे पर, 

धड़ाम  से गिरती हुई इमारत पर |


और मानो कि, उसे किसी कड़ी जंजीर से,

 जकड़ के बांधकर, 

किसी बक्से में, कैद कर दिया गया हो,

और दफना  दिया गया हो,

घर के बीचों बीच आँगन में,



1 comment:

  1. अच्छा लिखा है दीपा। लिखते रहें। शुभकामनाएं।

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