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मेरा पता

आज, मैं खुद में ही,  खुद का पता ढूंढती हूँ

जैसे कि, वो मुझमें  ही कहीं, खो गया हो,

शायद बरसों पुरानी, किसी किताब में,

बागीचे में, मुरझाए हुए, गुलाब में,

दीवार में  छिपी, सिसकती हुई दरार में,

मेरे अपमान और उनके अभिमान में


कहीं तो, चस्पा हुआ देखा है, मैंने उसे,

शायद गालों पर छपे, हाथ के निशानों में,

दिन के अंधेरे और रात के उजालों में।

उनकी चीखों और चिल्लाहटों में,

उनके अंदर के बुज़दिल किनारों में


अभी भी याद है मुझे,  

वह यही  कहीं, खन्न  से गिरा था,

शायद पलंग की पाटी पर,

दीवार की लाल ईंट पर,

फटाक से,बंद होते हुए दरवाजे पर, 

धड़ाम  से गिरती हुई इमारत पर |


और मानो कि, उसे किसी कड़ी जंजीर से,

 जकड़ के बांधकर, 

किसी बक्से में, कैद कर दिया गया हो,

और दफना  दिया गया हो,

घर के बीचों बीच आँगन में,



खिड़कियां


यदि किसी मोहल्ले में आग लगी हो,
तूफ़ानी हवा उसे उजाड़ने  की ज़िद में हो,
और ठंड उसे दफ़नाने पे तुली हो,
तो वहाँ कोहरा छा जाता है,
दूर-दूर तक, कोई दिखाई नहीं देता। 

मानो कि  पूरा मोहल्ला, 
एक गुमनाम धुएं की धुंध में खोया हो 
होती है तो बस खिड़कियां , 
जो एक-दूसरे को
अपनी बेबसी के किस्से सुनाती हैं।
कि, पहली चिंगारी के उठने पर,
उन्होंने गुहार लगाई थी, और चीखें भी सुनाईं थी,

पर शायद सारा शहर नशे मे धुत था ,
मानो किसी ने सबको भांग पिलाई गई थी ।
और,जब पहली तूफ़ानी हवा आई थी ,
तो खिड़कियाँ चरमराई थीं ,
जैसे किसी कमरे से सिसकने की आवाज़ आई थी,
शायद किसी ने अपनी जान गंवाई थी

और आज , जब ठंड, उसे दफ़नाने को है,
तो खिड़कियाँ टूटकर बिखर गई हैं,,
दीवारें सुन्न हो गई हैं,
और बदबू शहर के हर कोने में फैल गई है|,
एक घने बादल की तरह,
जिसे हटाने के लिए कोई नहीं बचा ,
खिड़कियां तक नहीं|