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                                                                               मूर्तियाँ  


कौन थे वो, कहाँ से आए थे

जो सड़कों पर मीलों पैदल चले

धूप उनको जला सकी ,

नदियां जिनको बहा सकी

सायद उनके हौंसले मंद

और मजबूरियां बुलंद थी !

 

भूख लगी तो खाने को तरसे

प्यास लगी तो दम घुटे

पर बदकिस्मती देखो

उनपे छप्पन इंच के डंडे बरसे

कभी कोई साहब आए कुछ दाने लेकर

पर अफसोस मीडिया के अलावा

वो किसी की भूख मिटा सके !

 

कभी टूटे ,कभी रोये, कभी घबराए

कभी ट्रेन ,कभी बस की आस भी लगाई

पैरो पे इतने छाले पड़े ,

सड़कों पे अपने खून की छाप भी लगाई

पर वो कभी रुके नहीं ,थके नहीं

चलते चले गए , हमेशा के लिए

रेलवे ट्रैक पर !

 

कौन थे वो ,इंसान तो नही थे

सायद हर चौराहे पर खड़ी मूर्तियाँ थी

हुक्मरानों ने जिनको धड़ाम से

गिराने का फरमान जारी कर दिया था

और ये भी गिनना, ज़रूरी नही समझा

कि मोहल्ले मे कितने मकान टूटे !

 

कौन थी वो स्त्री, कहाँ से आयी थी

जो अपने बच्चे को,

रोता हुआ, छोड़कर चली गई

कौन थी वो लड़की जो ,

बाप को कंधे पे बिठाकर मीलों चल गई

कौन थी वो औरत जो,

हर रोज, बंद कमरों मे मार खाती गई !

 

जो भी होगी, सायद कोई मूर्ति ही रही होगी

खैर कोई बात नही, यहाँ तो हर रोज

ऐसी लाखों मूर्तियाँ टूटकर बिखरती रहती हैं

कोई दूर दूर तक इनके

एक भी टुकड़े को, समेटने तक नहीं आया 

आती हैं तो बस आवाज़ें,

जो कानों को बहुत चुभती हैं!